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International Journal of Multidisciplinary Allied Research Review and Practices ISSN No: 2455-1570 (Volume I, Issue XI, November 2015) IJMARRP Page 22 तलसीदास और भारतीय जभाषा -―गीतावली‖ रफीक(शोधकता) डॉ.राधा कण HINDI DEPARTMENT-SUNRISE UNIVERSITY, ALWAR ाथन: ―गीतावली‖ को यान स पन पर ―रामचरत मानस‖ और ―रवनयपरिका‖ की अनक पंरततय की अनग ज सनाई पती ह। रा मचरत मानस क मारमिक थल ―गीतावली‖ म भी कथा रवधान क तकि स ह और वणिन की द रि स भी उतन की मारमिक बन प ह। लमण की शरतत का संग भातभरत का उदाहरण ही नह ह रकसी को भी रवचरलत करन क रलए काफी हभाव संचरण और संमण की यह मता काय रवशषकमहाकाय का गण माना जाता ―गीतावली‖ म भी कथा का मततक साथ रमलकभाव संमण का कारण बनता कथा का रवधान लोक सामाय रच को संकारवशीभ तता और मानव सबधम लकता तकि रवत करन की मता रखता ―मो तो कछ आई‖ और ―मरो सब परषारथ थाको‖ जराम कथन सबको रवत करत यह करण वता माि नह बरकबंधवता तकि ही करण वता उप होती असंलयमयंगवरन ारा ही यहा रस की तीरत होती राग-, भाव-अभाव लक पाठक या ोता जब रनवधभाव वशीभ होकर भावमय हो जात तो रनतित मनय होत और काय की यही शरत―गीतावली‖ को भी महवप णि सारहरयक करत बना दती परिचय: अपन समय की सभी महवप णि शरलय रचना करन वाल रहदी जनता सविरय करव तलसीदास रदास ारा यतजभाषा ही कायभाषा थी, अवधी को रफय और तलसीदास रतरित रकया। ―गीतावली‖ तलसी की मारणत रचनाओं मानी जाती कय अनक मायम लोकहदय यात हो मयतः तो तलसी को यही अरभत था। कण कावय भाव तलसी भी रपवणिन, माभरतऔर मधरोपासना भाव रमलन लगत ह। गीतावली उसका माण गीतावली नामकरण भी जयदव गीतगोरवद, रवापरत, पदावली की परपरा ही जो नामकरण माि अपन रवषयवत को कट करती गीतावली संकतवत तसम पदावली का योग रदास की लोकोमखी जभाषा की तलना कवल अरधक बरकतलसी भावावग यतकरन वह सहायक रसध हई रामच शतल अनसार हदय रिरवध भाव की यंजना गीतावाली मधर पद दखन आती अथीतर यास का सा कशल योग ―मरहमा मगी कौन सकरत की खल बच रवरसखह बाची‖ म वह अयि दलिभ राम भरत आरद मारमिक थल पर तलसीदास

तुलसीदास और भारतीय ब्रजभाषा ......रबरपन-क म रदन क जग ल। सक त-एक ब र। स कर-ब द।।

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    ISSN No: 2455-1570 (Volume I, Issue XI, November 2015)

    IJMARRP Page 22

    तुलसीदास और भारतीय ब्रजभाषा-―गीतावली‖

    रफीक(शोधकता)

    डॉ.राधा कृष्ण HINDI DEPARTMENT-SUNRISE UNIVERSITY, ALWAR

    प्राक्कथन:

    ―गीतावली‖ को ध्यान से पढ़ने पर ―रामचररत मानस‖ और ―रवनयपरिका‖ की अनेक परंततयों की

    अनुगूूँज सुनाई पड़ती है। रा मचररत मानस के मारमिक स्थल ―गीतावली‖ में भी कथा रवधान के

    तकि से हैं और वणिन की दृरि से भी उतने की मारमिक बन पड़े हैं। लक्ष्मण की शरतत का

    प्रसंग भातृभरतत का उदाहरण ही नहीं है रकसी को भी रवचरलत करने के रलए काफी है। भाव

    संचरण और संक्रमण की यह क्षमता काव्य रवशेषकर महाकाव्य का गुण माना जाता है।

    ―गीतावली‖ में भी कथा का क्रम मुततक के साथ रमलकर भाव संक्रमण का कारण बनता है।

    कथा का रवधान लोक सामान्य रचत्त को संस्कारवशीभतूता और मानव सम्बन्धमलूकता क ेतकि

    स े द्ररवत करने की क्षमता रखता है। ―मो पै तो कछु न है्व आई‖ और ―मरो सब पुरुषारथ

    थाको‖ जैस े राम के कथन सबको द्ररवत करते हैं यह प्रकरण वक्रता माि नहीं है बरकक

    प्रबधंवक्रता के तकि से ही प्रकरण में वक्रता उत्पन्न होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यगंध्वरन के द्वारा ही

    यहाँ रस की प्रतीरत होती है। राग-द्वेष, भाव-अभाव मलूक पाठक या श्रोता जब रनवद्धभाव के

    वशीभतू होकर भावमय हो जाते हैं तो वे रनतांत मनुष्य होते हैं और काव्य की यही शरतत

    ―गीतावली‖ को भी महत्वपणूि सारहरत्यक कृरत बना देती है।

    परिचय: अपन ेसमय की सभी महत्वपणूि शैरलयों में रचना करने वाल े रहन्दी जनता के सविरप्रय करव

    तुलसीदास से सरूदास द्वारा प्रयुतत ब्रजभाषा ही काव्यभाषा थी, अवधी को सरूफयों और

    तुलसीदास ने प्ररतरित रकया। ―गीतावली‖ तुलसी की प्रमारणत रचनाओं में मानी जाती है। कथ्य

    अनेक माध्यमों स ेलोकहृदय में व्याप्त हो मुख्यतः तो तुलसी को यही अरभप्रेत था। कृष्ण काव्य

    के प्रभाव से तुलसी में भी रुपवणिन, प्रेमाभरतत और मधुरोपासना के प्रभाव रमलन ेलगते हैं।

    गीतावली उसका प्रमाण है। गीतावली नामकरण वैस े भी जयदेव के गीतगोरवन्द, रवद्यापरत,

    पदावली की परम्परा में ही है जो नामकरण माि से अपने रवषयवस्तु को प्रकट करती है।

    गीतावली में संस्कृतवत तत्सम पदावली का प्रयोग सरूदास की लोकोन्मुखी ब्रजभाषा की तुलना में

    न केवल अरधक है बरकक तुलसी के भावावेगों के व्यतत करने में वह सहायक रसद्ध हुई है।

    रामचन्द्र शुतल क ेअनुसार हृदय क े रिरवध भावों की व्यजंना गीतावाली क ेमधुर पदों में देखन े

    में आती है। अथाःन्तर न्यास का जैसा कुशल प्रयोग ―मरहमा मृगी कौन सुकृरत की खल बच

    रवरसखन्ह बाँची‖ में है वह अन्यि दुलिभ है। राम भरत आरद के मारमिक स्थलों पर तुलसीदास

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    ―गीतावली‖ में वैसे ही सफल हैं जैसे ―रामचररतमानस‖ में। रामचन्द्र शुतल ने ―रहन्दी सारहत्य का

    इरतहास‖ में रलखा है ―गीतावली‖ की रचना गोस्वामी जी ने सरूदास के अनुकरण पर ही की है।

    बाललीला क ेकई पद ज्यों के त्यों सरूसागर में भी रमलते हैं, केवल ―राम‖ ―श्याम‖ का अन्तर

    है। लंकाकाण्ड तक तो कथा की अनेकरूपता क ेअनुसार मारमिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है

    वह तुलसी क ेसविथाअनुरूप है। पर उत्तरकाण्ड में जाकर सरू पद्धरत के अरतशय अनुकरण के

    कारण उनका गंभीर व्यरततत्व रतरोरहत सा हो गया है, रजस रूप में राम को उन्होंने सविि रलया

    है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। सरूदास में रजस प्रकार गोरपयों के साथ श्रीकृष्ण

    रहडंोला झलूते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी रदखाये गये हैं। इतना अवश्य है रक

    सीता की सरखयों और पुरनाररयों का राम की ओर पजू्य भाव ही प्रकट होता है।

    राम की नखरशख शोभा का अलंकृत वणिन भी सरू की शैली में बहुत स ेपदों में लगातार चला

    गया है।

    तुलसीदास कायि – Tulsidas literary works

    तुलसीदास द्वारा ररचत 12 रचनाये काफी लोकरप्रय है, रजनमे स े6 उनकी मुख्य रचनाये है और

    6 छोटी रचनाये है। भाषा के आधार पर उन्हें दो समहूों में रवभारजत रकया गया है –

    1. अवधी कायि – रामचररतमानस, रामलाल नहछू, बरवाई रामायण, पाविती मंगल, जानकी

    मंगल और रामाज्ञा प्रश्न।

    2. ब्रज कायि – कृष्णा गीतावली, गीतावली, सारहत्य रत्न, दोहावली, वैराग्य संदीपनी और

    रवनय परिका।

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    इन 12 रचनाओ के अलावा तुलसीदास द्वारा ररचत चार और रचनाये काफी प्ररसद्ध है रजनमे

    मुख्य रूप से हनुमान चालीसा, हनुमान अिक, हनुमान बहुक और तुलसी सतसाई शारमल है।

    भारत में समय-समय पर धमि, रवज्ञान एव ंसारहत्य क ेक्षेि में महान रवद्वानों और सारहत्यकारों ने

    जन्म रलया है। तुलसीदास उन्ही में स ेएक थे। आज तक रहदंी सारहत्य जगत में उनकी जोड़

    का दसूरा कवी नही हुआ जो पुरे भारत में अपने सारहत्य से इतना प्रभाव छोड़ पाया हो।

    तुलसीदास का जीवन रहदंी सारहत्य में सरूज के समान ही रहा है। रजनकी रकरणों ने केवल

    रहन्दू समाज ही नही बरकक पुरे रवश्व को प्रकारशत रकया है।

    तुलसीदास ने मानव समाज के उत्थान हेतु लोक मयाःदा की आवश्यकता को महससू रकया था,

    इसरलए उन्होंने ―रामचररतमानस‖ में राम को मयाःदा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत रकया और राम,

    लक्ष्मण, सीता, भारत, हनुमान आदी के रूप में ऐस ेआदशि चररिों की ककपना की है जो

    जनमानस का सदैव मागिदशिन करते रहेंगे।

    गं्रथ सम्परत : –

    रामचररतमानस –

    रामलीला नहछु

    वैराग्य संदीपरन

    बरवै रामायण –पाविती मंगल

    जानकी मंगल

    रामाज्ञा

    दोहावली –

    करवतावली

    गीतावली

    कृष्ण गीतावली

    रवनयपरिका –एव ं―हनुमान चालीसा‖ आदी।

    मृत्यु – काशी में संवत 1680 श्रावण शुतला सप्तमी के रदन वो स्वगि रसधार गये पर भारतीय

    जनमानस में वो सदैव जीरवत रहेंगे।

    गीतावली गोस्वामी तुलसीदास की काव्य कृरत है। गीतावली तुलसीदास की प्रमारणत रचनाओं में

    मानी जाती है। यह ब्रजभाषा में ररचत गीतों वाली रचना है रजसमें राम के चररत की अपेक्षा

    कुछ घटनाएूँ, झाँरकयाँ, मारमिक भावरबन्दु, लरलत रस स्थल, करुणदशा आरद को प्रगीतात्मक भाव

    के एकसिू में रपरोया गया है। ब्रजभाषा यहाँ काव्यभाषा के रूप में ही प्रयुतत है बरकक यह कहा

    जा सकता है रक गीतावली की भाषा सविनाम और रक्रयापदों को छोड़कर प्रायः अवधी ही है।

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    'गीतावली' नामकरण जयदेव क े गीतगोरवन्द, रवद्यापरत की पदावली की परम्परा में ही है जो

    नामकरण मात्र से अपन े रवषयवस्तु को प्रकट करती है। गीतावली में संस्कृतवत तत्सम

    पदावली का प्रयोग सरूदास की लोकोन्मुखी ब्रजभाषा की तुलना में न केवल अरधक है बरकक

    तुलसी के भावावेगों क े व्यतत करने में वह सहायक रसद्ध हुई है। रामचन्द्र शुतल के अनुसार

    हृदय क ेरिरवध भावों की व्यजंना गीतावाली के मधुर पदों में देखने में आती है।

    रामचन्द्र शुतल ने ―रहन्दी सारहत्य का इरतहास‖ में रलखा है ―गीतावली‖ की रचना गोस्वामी जी ने

    सरूदास के अनुकरण पर ही की है। बाललीला के कई पद ज्यों क ेत्यों सरूसागर में भी रमलते

    हैं, केवल ―राम‖ ―श्याम‖ का अन्तर है। लंकाकाण्ड तक तो मारमिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है

    वह तुलसी के सविथाअनुरूप है। पर उत्तरकाण्ड में जाकर सरूपद्धरत क ेअरतशय अनुकरण क े

    कारण उनका गंभीर व्यरततत्व रतरोरहत सा हो गया है, रजस रूप में राम को उन्होंने सविि रलया

    है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। सरूदास में रजस प्रकार गोरपयों के साथ श्रीकृष्ण

    रहडंोला झलूते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी रदखाये गये हैं। इतना अवश्य है रक

    सीता की सरखयों और पुरनाररयों का राम की ओर पजू्य भाव ही प्रकट होता है। राम की

    नखरशख शोभा का अलंकृत वणिन भी सरू की शैली में बहुत स ेपदों में लगातार चला गया है।

    ―गीतावली‖ मलूतः कृष्ण काव्य परम्परा की गीत पद्धरत पर रलखी गयी रामायण ही है। गीतावली

    का वस्तु-रवभाजन सात काण्डों में हुआ है। रकन्तु इसका उत्तरकाण्द अन्य ग्रन्थों के उत्तरकाण्ड

    स े बहुत रभन्न है। उसमें रामरूपवरण्न, राम-रहण्डोला, अयोध्या की रमणीयता, दीपमारलका,

    वसन्त-रबहार, अयोध्या का आनन्द, रामराज्य आरद के वणिन में माधुयि एव ं रवलास की रमणीय

    झाँरकयाँ प्रस्तुत की गयीं हैं।

    ―गीतावली‖ मलूतः कृष्ण काव्य परम्परा की गीत पद्धरत पर रलखी गयी रामायन ही है। गीता

    परम्परा और गीत की प्रकृरत के कारण कथा और वणिन में लीलापरकता के कारण थोड़े बहुत

    पररवतिन अवश्य हुए हैं और कुछ प्रसंगों को गीत के ही कारण छोड़ना पड़ा है। परतं ु

    प्रसंगोद्भावना की शरतत में ह्रास भी नहीं हुआ है। तुलसीदास और सरूदास में मलूभतू अंतर उस

    सामारजक दृरि का भी रहा है, जो दोनों में भरतत के स्वरूप के ही कारण नहीं मकूयबोध क े

    स्तर पर भी रभन्न थी। तुलसीदास केवल रामगुनगाथा या नामस्मरण के रलए ही रचना नहीं कर

    रहे थ ेउनका उद्देश्य कांडों में रवभाजन की पद्धरत क ेतकि स ेकाव्य रचना और सामारजक मकूयों

    की स्थापना का भी था। जहाँ कहीं तत्कालीन प्रभावों और रचनात्मक रवचलन क ेतकि स ेलोक

    मयाःदा में कुछ व्यवधान रदखायी पड़ता भी है रदव्यता बोध क ेतकि से लौरकक से अलौरकक में

    बदल जाता है। गीतावली का रनम्नरलरखत पद आचायि शुतल की दृरि में कृष्ण काव्य की

    माधुयोपासना से प्रभारवत है। यद्यरप तुलसी ने इसे लोकसामान्य लीला के रूप में ही वरणित

    रकया है और प्रारभं स ेही वह देवत्वकरण क ेतकि स ेमंरडत है।

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    खेलत बसंत राजारधराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।।

    सोहैं सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलरन्ह अबीर रपचकारर हाथ।।

    बाजरह ंमृदगं डफ ताल बेनु। रछरकै सुगंध-भरे-मलय रेनु।।

    उत जुवरत जथू जानकी संग। परहरे तट भषून सरस रगं।।

    रलए छरी बेंत सोधे रबभाग। चाँचरर झमूक कहैं सरस राग।।

    नपूुर रकंकरन धुरन अरत सोहाइ। ललनागन जब जेरह धरइूँ धाइ।।

    लोचन आूँजरन्ह फगुआ मनाई। छाँड़रह ंनचाइ हाहा कराइ।।

    चढ़ ेखररन रवदषूक स्वांग सारज। करैं करट रनपट गई लाज भारज।

    नर-नारर परसपर गारर देत। सुन हूँसत राम भइन समेत।।

    बरबस प्रसनू बर रबबुध बृंद। जय जय रदनकर-कुल-कुमुद-चंद।।

    ब्रह्मारद प्रसंसत अवध बास। गावत कल कीररत तुलरसदास।।

    ―गीतावली‖ को ध्यान स ेपढ़ने पर ―रामचररतमानस‖ और ―रवनयपरिका‖ की अनेक परंततयों की

    अनुगूूँज सुनाई पड़ती है। रामचररत मानस के मारमिक स्थल ―गीतावली‖ में भी कथा रवधान क े

    तकि से हैं और वणिन की दृरि स ेभी उतने ही मारमिक बन पड़े हैं। लक्ष्मण की शरतत का

    प्रसंग भातृभरतत का उदाहरण ही नहीं है रकसी को भी रवचरलत करने क ेरलए काफी है। भाव

    संचरण और संक्रमण की यह क्षमता काव्य रवशेषकर महाकाव्य का गुण माना जाता है।

    ―गीतावली‖ में भी कथा का क्रम मुततक के साथ रमलकर भाव संक्रमण का कारण बनता है।

    कथा का रवधान लोक सामान्य रचत्त को संस्कारवशीभतूता और मानव सम्बन्धमलूकता क ेतकि

    स ेद्ररवत करने की क्षमता रखता है। ―मो पै तो कछु न है्व आई‖‖ और ―मेरो सब पुरुषारथ

    थाको‖ जैस े राम के कथन सबको द्ररवत करते हैं यह प्रकरण वक्रता माि नहीं है बरकक

    प्रबधंवक्रता के तकि से ही प्रकरण में वक्रता उत्पन्न होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यगंध्वरन के द्वारा ही

    यहाँ रस की प्रतीरत होती है। राग-द्वेष, भाव-अभाव मलूक पाठक या श्रोता जब रनवद्धभाव के

    वशीभतू होकर भावमय हो जाते हैं तो वे रनतांत मनुष्य होते हैं और काव्य की यही शरतत

    ―गीतावली‖ को भी महत्वपणूि सारहरत्यक कृरत बना देती है।

    ब्रजभाषा यहाँ काव्यभाषा क ेरूप में ही प्रयुतत है बरकक यह कहा जा सकता है रक गीतावली

    की भाषा सविनाम और रक्रयापदों को छोड़कर प्रायः अवधी ही है। वैस ेभी काव्यभाषा अनेक

    भाषाओं के रक्रयापदों और संज्ञाशब्दों क े समाहार स े ही रवकरसत और स्वीकृत होती है।

    ―गीतावली‖ का महत्व रामायण को ―गीत पद्धरत‖ या शैली में अवतररत करने के कारण नहीं बरकक

    उस पद्धरत में और उसके द्वारा ही सोचन ेऔर रचने के कारण है। राम के जन्म से लेकर

    लवकुश की उत्परत्त तक का यह पाररवाररक वृत्त वणाःश्रम व्यवस्था की सम्पुरि की दृरि से नहीं

    बरकक पाररवाररकता क ेमकूय की दृरि स ेअत्यन्त मकूयवान है। यह टीका इस कृरत को तो

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    समझन ेमें सहायता करेगी ही रवश्वास है रक तुलसीदास की अन्य रचनाओं को समझने क ेरलए

    भरूमका का कायि करेगी। मध्यकालीन काव्य, मुख्यतः कृष्णभरतत और रामभतत संगीत, नृत्य

    आरद कलाओं की पारस्पररक रजंकता का काव्य है। गीतावली स्वय ंइसका प्रमाण है।

    राग असावरी

    आजु सुरदन सुभ घरी सुहाई।

    रूप-सील-गुन-धाम राम नृप-भवन प्रगट भए आई।। 1।।

    अरत पुनीत मधुमास, लगन ग्रह बार जोग समुदाई।

    हरषवतं चर अचर भरूमसुर तनरुह पुलक जनाई।।2।।

    बरषरह ंरबबुध-रनकर कुसुमावरल नभ दुंदुभी बजाई।

    कौसकयारद मातु मन हररषत, यह सुख बररन न जाई।।3।।

    सुरन दसरथ सुत जन्म रलए सब गुरु जन रबप्र बोलाई।

    बेद-रबरहत करर रक्रया परम सुरच, आनूँद उर न समाई।।4।।

    सदन बेद-धुरन करत मधुर मुरन, बहु रबरध बाज बधाई।

    पुरबारसन्ह रप्रय नाथ हेतु रनज रनज संपदा लुटाई।।5।।

    मरन, तोरन, बहु केतु पताकरन पुरी रुरचर करर छाई।

    मागध सतू द्वार बदंीजन जहूँ तहूँ करत बड़ाई।।6।।

    सहज रसंगार रकए बरनता चलीं मंगल रबपुल बनाई।

    गावरहूँ देरहूँ असीस मुरदत रचररजवौ तनय सुखदाई।।7।।

    बीरथन्ह कुंकुम कीच, अरगजा अगर अबीर उड़ाई।

    नाचरहूँ पुर-नर-नारर प्रेम भरर देहदसा रबसराई।।8।।

    अरमत धेनु गज तुरग बसन मरन जातरूप अरधकाई।

    देत भपू अनुरूप जारह ंजोइ, सकल रसरद्ध गृह आई।।9।।

    सुखी भए सुर, संत, भरूमसुर, खलगन मन मरलनाई।

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    सबई सुमन रबकसत ररब रनकसत, कुमुद-रबरपन रबलखाई।।10।।

    जो सुख रसंधु-सकृत-सीकर तें रसव रबररंच प्रभुताई।

    सोई सुख अवरध उमूँरग रह्यो दस रदरस कौन जतन कहौं गाई।।11।।

    जे रघुबीर चरन रचंतक रतन्हकी गरत प्रगट रदखाई।

    अरवरल अमल अनपू भगरत दृढ़ तुलसीदास तब पाई।।12।।

    शब्दाथि—सुरदन-मंगलमय रदन। सुभ घरी-शुभ घड़ी। मधुमास-चैत। बार-वार (रदन)। जोग-योग

    (ज्योरतष का शब्द है) भरूमसुर-ब्राह्मण। तनरूह-रोम। पुलक-रोमांच। रबबुध-रनकर-देवताओं क े

    समहू। रबरहत-अनुसार। सदन-घर। मागध-चारण। बीरथन्ह-गरलयों-में। जातरूप-स्वणि। कुमुद-

    रबरपन-कुमुरदनी का जगंल। सकृत-एक बार। सीकर-बूूँद।।

    भावाथि-आज का रदन मंगलमय है एव ंघड़ी भी अत्यतं शुभ है। (तयोंरक) आज सौंदयि, शील और

    गुण क ेआगार भगवान् राम (राजा) दशरथ के घर में पैदा हुए हैं। इस समय अत्यतं परवि चैत

    का महीना है एव ंलग्न, नक्षि, वार और योग का एकरित होना भी परम परवि है। ब्राह्मणों क े

    शरीर में रोमांच हो आया है। यहाँ तक रक जड़-चेतन भी प्रसन्न हैं। देवताओं का समहू आकाश

    में दुन्दुभी बजाते हुए पुष्पों की वषाः कर रहा है। कौसकया आरद माताओं का मन भी बड़ा हरषित

    है। इस प्रकार का सुख वणिन नहीं रकया जा सकता है। पुि क ेजन्म का समाचार सुनकर

    राजा दशरथ ने समस्त गुरुओ ंऔर ब्राह्मणों को बुलाया। वेद-शास्िानुसार रक्रयाएूँ सम्पन्न कीं।

    उनके हृदय में आनदं समा नहीं रहा है। महलों में मुरन मधुर ध्वरनयाँ (वेदोच्चारण क ेकारण)

    कर रहे हैं और अनेक प्रकार की बधाइयाँ बज रही हैं। अयोध्यावारसयों ने अपने रप्रय स्वामी क े

    रलए अपनी-अपनी सम्परत्तयाँ प्रसन्नता के कारण लुटा दी हैं। मरणयों के तोरण और बहुत-सी

    ध्वजाओं और पताकाओं से नगर को छा रदया गया है। द्वार पर मागध, सतू और बन्दीजन

    प्रशंसा कर रहे हैं। नगर की सौभाग्यवती रस्ियाँ सहज वृंगार स ेसुसरज्जत तरह-तरह की मंगल

    सामग्री रलये हुए चली आ रही हैं। सौभाग्यवती रस्ियाँ गाती हैं और प्रसन्नरचत्त स ेआशीवाःद देती

    हैं रक यह सुखदायक बालक शाश्वत आयु को प्राप्त करे। प्रसन्नता क ेकारण गली-गली में

    अरगजा, अगर और अबीर उड़ रहा है। नगर क ेस्िी-पुरुष प्रेम रवह्वल होकर अपने शरीर क े

    होश-हवास भलूकर नाच रहे हैं। महाराज दशरथ अरधकारधक पररमाण में वस्ि, हाथी, घोड़े,

    गाय, मरणयाँ और सुवणि दान में बाँट रहे हैं, परन्तु उरचत-अनुरचत पािता का ध्यान रखे हुए।

    ऐसा प्रतीत होता है रक सारी रसरद्धयाँ उनके घर आ गयी हैं। रजस प्रकार सयूोदय होने पर

    फलू रखल जाते हैं उसी प्रकार देवताओं, संतों और ब्राह्मणों का मन प्रसन्न हो गया है परन्तु

    दुिों के मुरझा जानेवाली कुमुरदनी की भाँरत मन उदास हो गये हैं। रजस आनन्द-समुद्र की एक

    बूूँद स ेही रशव जी और ब्रह्मा जी का जगत् में प्रभुत्व बना हुआ है वही सुखसागर इस समय

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    अवधपुरी में दसों रदशाओं में उमड़ रहा है। इसका वणिन मैं रकस प्रकार करूूँ अथाःत् नहीं रकया

    जा सकता। जो रामचन्द्र जी के चरणों का रचन्तन करने-वाल ेहैं व ेयहाँ रनश्चय ही प्रसन्न हैं

    उनकी गरत प्रत्यक्ष है। यहाँ तक रक तुलसीदास ने भी अपनी अरवरल, रनमिल, अनुपम और

    रनश्च भरतत प्राप्त कर ली है।।1।।

    अलंकार—रूपक और उपमा। 9वें में रूपक है।

    राग जैतश्री

    सहेली, सुन ुसोरहलो रे !

    सोरहलो, सोरहलो, सोरहलो, सोरहलो सब जग आज।

    पतू सपतू कौरसला जायो, अचल भयो कुलराज ।।1।।

    चैत चारु नौमी रतरथ, रसतपख मध्य-गगन-गत भानु।

    नखत जोग ग्रह लगन भल ेरदन मंगल मोद रनधानु।।2।।

    ब्योम पवन पावक जल थल रदरस दसहू सुमंगल मलू।

    सुर दुंदुभी बजावरहूँ, गावरहूँ, हरषरहूँ बरषरहूँ फलू ।।3।।

    भपूरत सदन सोरहलो सुरन बाजैं गहगहे रनसान।

    जहूँ तहूँ सजरहूँ कलस धुज चामर तोरन केतु रबतान।।4।।

    साँरच सुगंध रचैं चौके गृह आूँगन गली बाजार।

    दल फल फलू दुब दरध रोचन, घर घर मंगलाचार।।5।।

    सुरन सानदं गुरु सरचव भरूमसुर प्रमुरदत चले रनकेत।।6।।

    जातकमि करर, परूज रपतर सुर, रदए मरहदेवन दान।

    तेरह औसर सुत तीन प्रगट भए मंगल, मुद, ककयान ।।7।।

    आनूँद महूँ आनदं अवध, आनदं बधावन होई।

    उपमा कहाँ चारर फल की, मोरहूँ भलो न कहै करब कोई।।8।।

    सरज आरती रबरचि थार कर जथू जथू बरनारर।

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    गावत चलीं बधावन ल ैलै रनज रनज कुल अनुहारर।।9।।

    असही दुसही मरहु मनरहूँ मन, बैररन बढ़ह ुरबषाद।

    नृपसुत चारर चारु रचरजीवहु संकर-गौरर प्रसाद ।।10।।

    लै लै ढोब प्रजा प्रमुरदत चल ेभाँरत भाँरत भरर भार।

    कररहूँ गान करर आन राय की, नाचरहूँ राजदुवार।।11।।

    गज, रथ, बारज, बारहनी, बाहन सबरन सूँवारे साज।

    जनु ररतपरत ररतुपरत कोसलपुर रबहरत सरहत समाज।।12।।

    घखंा घरंट पखाउज आउज झाँझ बेनु डफ तार।

    नपूुर धुरन, मंजीर मनोहर, कर कंकन-झनकार।।13।।

    नृत्य कररहूँ नट, नारर नर अपन ेअपने रगं।

    मनहुूँ मदन-ररत रबरबध बेष धरर नटत सुदेस सुढंग।।14।।

    उघटरहूँ छंद प्रबधं गीत पद राग तान बधंान।

    सुरन रकन्नर गंधबि सराहत रबथके हैं रबबुध-रबमान।।15।।

    कुंकुम अगर अरगजा रछरकरहूँ भररहूँ गुलाल अबीर।

    नभ प्रसुन झरर, परूी कोलाइल, भइ मनभावरत भीर।।16।।

    बड़ी बयस रबरध भयो दारहनो सुर-गुरु-आरसरबाद।

    दसरथ सुकृत-सुधासागर सब उमगे हैं तरज मरजाद।।17।।

    ब्राह्मण बेद, बरंद रबरदावरल, जय धुरन मंगल गान।

    रनकसत पैठत लोग परसपर बोलत लरग लरग कान।।18।।

    वाररहूँ मुकुता रतन राजमरहषी पुर-सुमुरख समान।

    बगरे नगर रनछावरर मरनगन जनु जवारर जव-धान।।19।।

    कीरन्ह बेदरबरध लोकरीरत नृप, मंरदर परम हुलास।

    कौसकया कैकयी सुरमिा, रहस-रबबस ररनवास।।20।।

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    रारनन रदए बसन मरन भषून, राजा सहन-भूँडार।

    मागध सतू भाट नट जाचक जहूँ तहूँ कररहूँ कबार।।21।।

    रबप्रबधु सनमारन सुआरसरन, जन पुरजन परहराइ।

    सनमाने अवनीस, असीसत ईसरमेस मनाइ।।22।।

    अिारसरद्ध नवरनरद्ध भरूत सब भपूरत भवन कमारह।ं

    समउ समाज राज दसरथ को लोकप सकल रसहारहूँ।।23।।

    को करह सकै अवधबारसन को प्रेम प्रमोद उछाह।

    सारद सेस गनेस रगरीसरहूँ अगम, रनगम अवगाह।।24।।

    रसव रबररंच मुरन रसद्ध प्रसंसत बड़े भपू स ेभाग।

    तुलरसदास प्रभ ुसोरहलो गावत उमरग उमरग अनुराग ।।125।।2।।

    शब्दाथि-सोरहलो-सोहर। रसतपख-शुतल पक्ष। ब्योम-आकाश। पावक-अरग्न। गहगहे-तीवर ध्वरन से।

    रनसान-वाद्ययिं। धुज-ध्वजा चामर-चूँवर। रोचन-गोरोचन। दसस्यदंन-दशरथ। भरूमसुर-ब्राह्मण।

    मरहदेवन-ब्राह्मण। बरनारर-सौभाग्यवती स्िी। असही दुसही-द्वेषी, वैरी। ढोब-भेंट की वस्तु।

    आउज-तासा। तार-ताल। बेनु-वशंी। उघटरह-ंउद्घाटन, उच्चारण करना। रबथके-रुक गये हैं।

    रबबुध-देवता। बड़ी बयस-वृद्धावस्था।

    भावाथि-हे सखी ! सोहर (बधाई के गीत) तो सुन ! (ऐसा प्रतीत होता है) रक आज सारे संसार

    में सोहर-ही-सोहर हो रहा है। कौसकया ने आज ऐस ेसपतू बालक को जन्म रदया है रजसस े

    उसका कुल और राज्य दोनों अरवचल हो गया है। चैि शुतल पक्ष नवमी दोपहर का समय ग्रह,

    नक्षि, योग और लग्न आरद की दृरि स ेसवोत्तम है। आज का रदन वस्तुतः आनदं और

    प्रसन्नता का आगार है। आकाश, वायु, अरग्न, जल, स्थान और दसों रदशाएूँ आरद सभी आज

    मंगल का हेतु बन गयी है। देवता लोग दुन्दुभी बजाकर, गाकर, प्रसन्न होकर फलूों की वषाः कर

    रहे हैं। पृथ्वीपरत दशरथ के घर सोहर की ध्वरन सुनकर सब और प्रसन्नता के कारण नक्कारों

    की गम्भीर ध्वरन होने लगी और लोग जहाँ-तहाँ कलश ध्वजा चूँवर तोरण पताका और मण्डप

    सजाने लगे। घर, आूँगन, गली और बाजारों को सुगरन्धत जल स ेसींचकर उनमें चौक ेपरूे जा

    रहे हैं। पि-पुष्प, फल, दबू, दही और रोली (गोरोचन) आरद सामरग्रयों स ेघर-प्ररत-घर शुभ कायि

    (पजूारद) हो रहे हैं। पुि-जन्म का समाचार सुनकर राजा दशरथ अपन ेसभासदों के साथ

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    उठकर खड़े हो गये एव ंगुरु, ब्राह्मण और देवताओं की पजूा की और (वहीं) ब्राह्मणों को दान

    रदया। इसी समय मंगल, आनदं और ककयाणस्वरूप तीन और पुि हुए। हे सखी ! आज

    अयोध्या में इसक ेकारण आनन्द-ही-आनन्द है और चारों ओर आनन्द क ेकारण बधावा (सोहर,

    मंगलाचार आरद) हो रहा है। (तुलसीदास कहते हैं) रक यरद मैं अथि, धमि, काम और मोक्ष आरद

    फलों की उपमा दूूँ तो कोई करव भला नहीं कहेगा तयोंरक मोक्ष के रूप में राम का अवतार हो

    गया है और मोक्ष के बाद अन्य फलों की आवश्यकता ही तया है। यह सब समाचार सुनकर

    झुंड-की-झुंड सौभाग्यवती रस्ियाँ रवरचि थालों में आरती सजाकर कुलानुकलू बधावा गाती हुई

    चल पड़ी हैं। बालकों को ऐसा आशीवाःद देन ेलगीं रक इनके शिु और द्वेषी शिुओं के मन में

    रवषाद न बढ़े। भगवान् शंकर और पाविती कृपा करके इन राजकुमारों को दीघाःयु प्रदान करें।

    प्रजा जन प्रसन्न होकर भाँरत-भाँरत क ेउपहारों का भार लेकर रनकल पड़े एव ंराजभवन के द्वार

    पर आकर महाराज दशरथ की दुहाई देते हुए प्रसन्नता के कारण नाचने-गाने लगे। हरस्त, अश्व

    और रथों की सेना ने अपने-अपन ेवाहन और साज को इस प्रकार सजाया है मानो इस समय

    कामदेव और वसन्त अपने समाज सरहत अयोध्या में रवहार कर रहे हों। एक ओर यरद घण्टा,

    घण्टी, पखावज और तासे बज रहे हैं तो दसूरी ओर झाँझ, बाँसुरी, डफ और करताल बज रहे

    हैं, यरद एक ओर से नपूुर मंजीरों की ध्वरन सुनायी पड़ती है तो दसूरी ओर से हाथों क ेकंकड़ों

    की झकंार आ रही है। नट-नटी, स्िी-पुरुष सभी अपने में मस्त होकर इस प्रकार नत्य कर रहे

    हैं मानो कामदेव और ररत ही अनेक रूप धारण करके सुन्दर ढंग स ेआकषिक नाच नाच रहे

    हैं। अनेक प्रकार के छंद, प्रबन्ध, गीत, पद, राग और तीनों क ेक्रमों का उद्घाटन (नवीन प्रयोग)

    हो रहा है रजसे सुनकर रकन्नर और गंधवि प्रशंसा करते हैं और देवता आकाश में रवमान रोककर

    सुनन ेलगते हें। नगर में आज इतना कोलाहल और अत्यन्त आकषिक भीड़ है। लोक केसर,

    अगर और अरगजा रछड़क रहे हैं और गुलाल और अबीर लगा रहे हैं। महाराज दशरथ को

    (आज) गुरु और ब्राह्मणों के आशीवाःद स ेवृद्धावस्था में पुि प्राप्त हुआ है—इस अवस्था में रवधाता

    अनुकलू हुआ है। (इसरलए) इस समय दशरथ के सम्पणूि पुण्य फल रूप अमृत समुद्र अपनी

    मयाःदा छोड़कर उमड़ आये हैं। अथाःत् उन्हें सीमातीत पुण्य फल प्राप्त हो रहा है। ब्राह्मण लोग

    वेद ध्वरन, वदंीजन रवरुदावली (प्रशरस्तपाठ) जयघोष एव ं मंगलगान कर रहे हैं। इसरलए

    कामकाजी व्यरतत कोलाहल क ेकारण एक-दसूरे की बात न सुन पाने के कारण बाहर-भीतर

    आते-जाते समय आपस में कान से कान लगाकर बातचीत कर रहे हैं। राजमरहषी और नगर

    सुन्दररयाँ समान भाव स ेरत्न और मरणयाँ न्यौछावर कर रही हैं या लुटा रही हैं। सारे नगर में

    रनछावर रकये हुए रत्न और मरणयाँ इस प्रकार रबखरी हैं मानो ज्वार, जौ और धान रबखरे हुए

    हों। महाराज ने भी परम आनरन्दत होकर राजमहल में ही सब प्रकार की वैरदक और लौरकक

    रीरतयों को सम्पन्न रकया। ररनवास में कौशकया, कैकेयी और सुरमिा आरद सभी परम प्रसन्न हैं।

    रारनयों ने वस्ि, मरण और आभषूण आरद रदया है और राजा न े(मुद्रा आरद) बाहरी कोष दान में

    रदया है रजन्हें ले-लेकर मागध, सतू, भाट, नट और याचक लोग आपस में जहाँ-तहाँ लेन-देन

    कर रहे हैं। महाराज दशरथ ने रवप्रवध ूऔर रपतृगृह में रहनेवाली रववारहत लड़रकयों का सम्मान

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    करके अपन ेआरश्रत और पुरवारसयों को भी वस्िारद पहनाकर सम्मारनत रकया। फलतः ये सभी

    महादेव और रवष्णु का स्मरण करते हुए उन्हें आशीवाःद दे रहे हैं। इस समय आठो रसरद्धयाँ

    (अरणमा, गररमा, लरघमा आरद) तथा नवों रनरधया तथा सभी प्रकार की रवभरूतयाँ राजा दशरथ के

    महल में टहल रही हैं। अयोध्यावारसयों के इस समय के प्रेम, आनदं और उत्साह का कोई

    वणिन नहीं कर सकता। शारदा, शेष, गणेश एव ंभगवान् शंकर की भी पहुूँच के परे है, वेद

    उसका पार नहीं पा सकते हैं तो मुझ जैस ेसाधारण करव की तया रबसात। महाराज दशरथ क े

    सौभाग्य की प्रशंसा रशव, ब्रह्मा, मुरन और रसद्धगण भी कर रहे हैं। इस समय तो मैं

    (तुलसीदास) भी प्रभ ु का सोहर गा रहा हूूँ।।2।।

    अलंकार-रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और व्यरतरेक।

    सन्दभि:

    1. रशक्षा क ेरसधांत, ज़ेरवयर समाज सेवा संस्थान

    2. उद्भव, रवकास और स्वरूप; अिम संस्करण, १९८४, पृष्त १५

    3. रहन्दी सारहत्य का इरतहास : नये रवचार, नई दृरि (गगूल पुस्तक ; सम्पादक -

    डॉ सुरेश चन्द्र)

    4. संस्कृत स ेखड़ीबोली तक का सफर (डॉ. काजल बाजपेयी)

    5. रहदंी करवता की चेतना-यािा (शेषनाथ प्रसाद)

    6. रहन्दी भाषा का संरक्षप्त इरतहास (प्रश्नोत्तर)